Saturday 14 June 2014

तो मिलेगी इज्जत से जीने की गारंटी..!

संसद के संयुक्त सत्र में राष्टपति का महिलाओं को संसदीय एवं प्रशासनिक पदों पर 33 फीसदी आरक्षण देकर आगे लाने का वादा आधी आबादी को बेहतर कल की उम्मीद बंधाने वाला है। उम्मीद इस बात की कि देश में सर्वोच्च पदों पर महिलाओं का ज्यादा से ज्यादा वर्चस्व होगा तो इनके जरिए आधाी आबादी की आवाज असरदार तरीके से सत्ता पर विराजमान नीति-निर्णायकों के कानों तक पहंुचेगी। इसकी उम्मीद कि मां की कोख में बेटियों को जीवित रहने और जन्म लेने की गारण्टी मिलेगी। गरीब और दबे-कुचले परिवार में जन्म लेने के बावजूद पोषणयुक्त भोजन मिलेगा। वे आगे बढ़ेंगी, पढेंगी। घर से बाहर निकलने पर सुरक्षित घर वापस लौट सकेंगी। योग्यतानुसार नौकरियां पाएंगी। ससुराल में दहेज न ले जाने पर भी सुखी वैवाहिक जीवन जी सकेंगी। कुल मिलाकर उम्मीद इस बात की कि प्रधानमंत्री ‘नरेंद्र दामोदर दास मोदी‘ की ओर से दिखाए गए अच्छे दिनों का सपना साकार हो सकेगा। हालांकि सैकड़ों उम्मीदों के पूरा होने की राह में जो बेशुमार रोड़े हैं उनको कैसे उखाड़ फेंका जाएगा यह सवाल बड़ी मजबूती से सिर उठाए खड़ा है।
देश में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा में संघर्ष और प्रयास तो आजादी से पहले ही शुरू हो चुके थे। इस दिशा में कई चुनौतियों पर विजय भी हासिल हुई है। लेकिन आजादी के 66 सालों के बाद भी जारी इस सफर की रफतार बहुत धीमी है। महिलाओं के हक में सैकड़ों कानून और योजनाएं लागू किए जाने के बाद भी आधी आबादी की दशा शोचनीय है। ‘कन्या भ्रूण हत्या‘ के खिलाफ सख्त कानून लागू होने के बाद भी देश में प्रत्येक वर्ष सात लाख बेटियों मां के गर्भ में ही मारी जा रही हैं। इससे स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में असमानता है। प्रति एक हजार लड़कों के अनुपात में 940 लड़कियां हैं जिससे कई इलाकों में तो शादी के लिए लड़कियां ही नहीं मिल रही हैं। ‘नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो‘ के मुताबिक प्रतिवर्ष 20 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं। आठ हजार से ज्यादा दहेज हत्याएं हो रही हैं। पति और रिश्तेदारों द्वारा हिंसा व प्रताड़ना की शिकार महिलाओं का ग्राफ एक लाख का आंकड़ा पार कर चुका है। ‘यूनिसेफ‘ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 50 फीसदी किशोरियां एनिमिक हैं। यानि उनके जिस्म में खून की कमी है। 40 फीसदी से ज्यादा लड़कियां 18 साल की होने से पहले ही ब्याह दी जाती हैं और 22 फीसदी मां बन जाती हैं।
यह स्थिति तब है जब वर्तमान समय में लोक सभा में महिलाओं का फीसद 11 तो राज्य सभा में 10.6 है। 188 देशों के बीच राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के संदर्भ में भारत का स्थान 108वां है। हालांकि मोदी सरकार देश की कमान सम्भालने के बाद से ही इस स्थिति को और सुधारने के प्रयास करती दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह अपने मंत्रिमंडल में करीब 25 फीसदी महिलाओं को जगह दी। विदेश मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए ‘सुषमा स्वराज‘ और ‘लोकसभा स्पीकर‘ के लिए सुमित्रा महाजन के नाम पर मोहर लगाई, इससे ‘महिला सशक्तिकरण‘ को लेकर उनकी नीयत साफ-सुथरी जान पड़ती है। संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण की घोषणा होने के बाद अब लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पास होने और इसपर राष्टपति की मुहर लगने की देरी है। जबकि राज्यसभा में यह बिल पहले ही पास हो चुका है। कदम सराहनीय है लेकिन 33 फीसदी आरक्षण मिलने के बाद आरक्षित सीटों को भरने के लिए राजनैतिक पार्टियों को महिलाओं के लिए दिल बड़ा करने की जरूरत पड़ेगी। आज भी चुनाव में पर्याप्त संख्या में महिलाओं को टिकट नहीं दिए जा रहे। जबकि कई राजनैतिक पार्टियों में ‘महिला विंग‘ तक नहीं हैं। दूसरी ओर सत्ताधारी महिलाओं को भी अपनी जिम्मेदारी की गंभीरता को समझना होगा। सकारात्मक नतीजे भी तभी प्राप्त हो सकेंगे जब सत्ता में भागीदारी रखने वाली महिलाएं स्वंय पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित हुए बिना अपने फर्ज को अंजाम दें। क्षेत्रीय एवं दलगत राजनीति से उपर उठकर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ एकजुट होकर आवाज बुलंद करें, फैसले लें। भारतीय समाज में उपरी और दिखावटी नहीं बल्कि भीतरी बदलाव लाने की कोशिशें की जाएं। सत्ता को पुरखों की विरासत के रूप में सौंपने का चलन बंद हो। केवल ‘रायल ब्लड‘ को ही तरजीह न दी जाए बल्कि समाज के दबे-कुचले और गरीब तबकों की महिलाओं का भी संसदीय एवं प्रशासनिक पदों पर स्वागत किया जाए।
कल्पतरु एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख
फोटोः गूगल से साभार

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