Saturday 3 May 2014

कहानी-डोरबेल

शहर, मोहल्ला और गली कोई भी हो औरतों की जिंदगी एक-दूसरे से कुछ खास अलग नहीं होती। कहीं यह ससुराल में दहेज न लेकर आने के लिए पीटी जाती हैं। कहीं अपनी मर्जी से छोटे-छोटे फैसले लेने के लिए तो कभी अच्छा रंग-रूप न होने के कारण भगवान की गलती का खामियाजा भी इन्हें ही पति की उलाहना और प्रताडना झेलकर चुकाना पडता है। तभी तो कई साल पहले जो बेचारी रजिया के साथ दिल्ली में घटा था, उससे मिलती-जुलती ही हालत यहां रश्मि की मालूम होती है। कलाताई पडोस से आ रही चीखों और धमाचैकडी की आवाज पर तकिए से दाहिना कान दबाए हुए सोने की कोशिश करते हुए यही सोच रही थीं। रात का एक बजा था। पडोस की रश्मि को उसका पति पीट रहा था। यह नहीं पता किस बात पर। धीरे-धीरे चीखें कम हुईं तो कलाताई को कुछ चैन पडा,लेकिन नींद नहीं आ रही थी।

कलाताई दिल्ली की रहने वाली थीं। उनका अचार-पापड का वहां फलता-फूलता बिजनेस था। पति शादी के दूसरे साल बाद ही चल बसे थे। शादीशुदा जिंदगी के कुछ कडवे अनुभवों के कारण कलाताई ने दोबारा शादी करने की सोची भी नहीं और आत्मनिर्भर बनना ज्यादा बेहतर समझा। बच्चे थे नहीं सो अपने सपने को साकार करने में उन्हें कोई खास अडचन भी नजर नहीं आई। अपने गहने बेचकर दिल्ली में ही अचार-पापड का बिजनेस  शुरू किया जो कुछ शुरूआती अडचनों के बाद चल निकला। अपने बिजनेस को लखनऊ में विस्तार देने के लिए वह आजकल अपनी बहन रज्जो के घर ठहरी हुई थीं। रज्जो ने ही बताया था कि पडोसिन रश्मि को उसका पति अक्सर मारा-पीटा करता है। जितने दिन रहेंगी उन्हें पडोस के हंगामे सुनने की आदत डालनी होगी। कलाताई ने रज्जो से कहा कि उस बेचारी रश्मि को बचाने के लिए तुम मोहल्ले वाले हस्तक्षेप क्यों नहीं करते। उसकी डोरबेल यानि दरवाजे की घंटी ही बजा दिया करो, जब वह पिट रही हो। बेचारी शायद मार खाने से बच जाए। इस बात पर रज्जो ने कलाताई को अजीब नजरों से देखा और फिर बोली जीजी आप भी न! अपना काम करने आई हो वही करो। क्या फायदा उनके घर का मामला है। उल्टे कुछ हमें ही उल्टी-सीधी सुना दी तो मुझसे तो बर्दाश्त न होगा। यह कहकर रज्जो ने बात टाल दी। लेकिन कलाताई को चैन नहीं पडा। मन ही मन उन्होंने कुछ ठान लिया था।
रज्जो के घर में ठहरे आज उन्हें चैथा दिन ही था। रश्मि की चींखें रुकरुकर करीब आधे घंटे से उनके कानों में पड रहीं थीं,लेकिन अपनी बहन रज्जो की हिदायत पर वह बडी मुश्किल से खुद पर काबू किए हुए थीं। ये चीखें उन्हें दिल्ली में उनकी काॅलोनी की एक नव विवाहिता लडकी रजिया की दर्दनाक कहानी की यादों में खींच ले गई। और कलाताई यादों के समंदर में गोते लगाने लगीं।
रजिया काॅलोनी में हकीम साहब की दूसरी बहू के नाम से जानी जाती थी। उसके पति शादाब का समाज में कोई रूतबा नहीं था। दोहाजू और  रजिया से उम्र में दोगुना था वह। शादाब की पहली पत्नी दूसरे पुरुष के प्रेम में पड जाने के बाद उसके साथ भाग गई थी। शादाब ने चार माह बाद ही दूसरे विवाह के लिए हामी भर दी थी। भला भगोडी पत्नी का शोक भी कोई पुरूष मनाता है। परलोक सिधारी हुई का भी इतने समय तक मना लें तो गनीमत समझो।
रजिया के पिता लल्लन ने उसके लिए दोहाजू लडके को इसलिए हां कर दी थी, क्योंकि रजिया की रंगत तो काली थी ही साथ ही उनकी इतनी हैसियत भी न थी कि दान-दहेज में चार बरतन भी दे सकें। रजिया के पिता गरीबी के कारण ही रजिया सहित अपनी दो अन्य बेटियों को भी स्कूल नहीं भेज सके थे। मदरसे में ही रजिया ने थोडी बहुत दीनी तालीम पाई थी। वह अपनी तीन बहनों में सबसे बडी थी। रजिया की रंगत और परिवार की गरीबी के कारण उसके रिश्ते आते ही थे, किसी न किसी खोट-नुक्स वाले। वह करीब 25 साल की थी। इसलिए बेटी की बढती उम्र की भी चिंता लल्लन को थी। लल्लन ने इसलिए जैसे-तैसे उसके हाथ पीले करके बला टाली।
ससुराल में रजिया की चीखें शादी केेेे 21वें दिन ही काॅलोनी वालों के कान फाडने लगीं थीं। सबको पता था कि शादाब जिस तरह अपनी पहली पत्नी को पीटा करता था, वैसे ही वह रजिया को भी आधी-आधी रात को मारा-पीटा करता है। लेकिन काॅलोनी के लोगों ने गाॅसिप करने के अलावा कभी हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह कहकर मामला टाल दिया जाता कि यह उनका घरेलू मामला है। रजिया की शादी को पांच माह गुजर चुके थे। उसके साथ मार-कुटाई का सिलसिला जारी था।
  वह ईद का दिन था। ईद के दिन मुस्लिम समुदाय में एक दूसरे के घर जाकर गले मिलकर त्योहार की बधाई देने का चलन है। लेकिन उस दिन रजिया का घर बिल्किुल सूना पडा था। पूरा दिन गुजर गया काॅलोनी में रजिया के घर का मेन गेट खुलने की एक बार भी आवाज नहीं सुनाई दी। मुझसे रहा नहीं गया तो शाम करीब पांच बजे ईद मिलन के बहाने रजिया का हाल लेने पहंुच गई।
 मेन गेट का चैनल तो हाथ डालकर खोल लिया फिर साडी ठीक करते हुए मैने अंदर के दरवाजे की डोरबेल बजाई। लेकिन दरवाजा नहीं खुला। सोचा हो सकता है, अंदर के कमरे में टीवी देख रही हो या सो रही हो बेचारी। अकेली ही तो रहती है। उसके ससुर हकीम साहब तो खुद ही बेटे शादाब के रोज-रोज के हंगामें से तंग आकर छोटे बेटे-बहू के घर दिल्ली रहने चले गए। शादाब घर में हो न हो क्या पता। बहरहाल, इसी सोच में मैने दरवाजे की घंटी आठ या दस बार बजाई। इसके बाद बजाती चली गई, दरवाजा नहीं खुला। मैं दरवाजे पर ताला चेक करने लगी। कोई ताला नहीं लगा था। अब तक मेरे दिल की घडकने बढ चुकी थीं। किसी अनजाने खौफ से मैने रजिया, रजिया चीखना शुरू कर दिया। 10 मिनट में ही काॅलोनी के लोग इकट्ठा हो चुके थे। दरवाजा तोडा गया। घर के अंदर रजिया के बेडररूम का नजारा दिल दहला देने वाला था। रजिया की लाश दुपटटे के सहारे पंखे से झूल रही थी। बिस्तर पर लकडी का स्टूल गिरा पडा था।
  कमरे की सेंटर टेबिल पर एक कागज गिलास से दबाकर रखा मिला। उसमें उर्दू में लिखा हुआ था। मैं अपनी जिंदगी खत्म करने की जिम्मेदार हंू। जीने से ज्यादा मौत आसान लगी इसलिए यह कदम उठाया। मुझे शादी से अब तक एक बीवी होने का सुख नहीं मिला। शादाब नामर्द है। मैं तो इसपर भी उसके साथ जिंदगी बिता देती,लेकिन वह सिर्फ जिस्मानी ही नहीं बल्कि दिमागी तौर से भी बीमार है। अपनी नामर्दानगी की खीज वह मुझे हर रात पीट-पीटकर निकालता था। मेरे जिस्म को नोंच-खरोचकर वह राक्षसों की तरह ठहाके लगाता। मैं दर्द से तडपती-चीखती तो उसके चेहरे पर सुकून की लहरें हिलोरे मारतीं। मेरे जिस्म पर पडे उसके दातों और ठोकरों के निशान उसकी हैवानियत का सबूत हैं। अल्लाह गवाह है मैं यह जुल्म सहने के बाद भी जीना चाहती थी। शादाब की कैद से आजाद होना चाहती थी,लेकिन कोई बताए था मेरे लिए कोई ठिकाना जहां मुझे पनाह मिल सकती थी। ऐसे मायके में वापस जा सकती थी जहां कंुवारी बेटी ही बोझ थी। क्या मोहल्ले की उन औरतों से अपना दुख साझा करती, जिनकी निगाहें सिर्फ यह देखती थीं कि मैनें किस रंग की और कितने भारी काम वाली, कीमती साडी पहन रखी है। मैं तो मुस्तफा की पहली बीवी की तरह प्रेमी के साथ भाग भी नहीं सकती थी। खूबसूरत जो नहीं हंू फिर कौन भगाना चाहता मुझे। किसी सवाल का जवाब नहीं मिला। इसलिए जा रही हंू, हमेशा के लिए।
  मेरे पडोसी सलीम भाई ने खत जैसे ही पढकर रखा। वहां पुलिस पहंुच चुकी थी। एक-एक करके सभी काॅलोनी वालों से पूछताछ शुरू हो चुकी थी। मेरे दिमाग में आंधियां चल रही थी। पश्ताचाप की आधियां। इस घर की डोरबेल बजाने में मुझे बहुत देर हो गई। यह सोचकर मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था। काश की यह डोरबेल मैने पहले ही रजिया की चीखें सुनने पर बजाई होती। मुझसे देर हुई तो कोई और ही बजा देता। तब शायद यह नौबत नहीं आती। रजिया का दर्द साझा करके। शादाब की ज्यादती पर उसे रोक-टोककर काॅलोनी के किसी भी व्यक्ति ने अपने ंिजंदा होने का सबूत दिया होता तो रजिया जिंदा होती। लेकिन अब कम से कम मैं तो किसी और रजिया को यंू मरने न दंूगी। मैं करूंगी हस्तक्षेप, डोरबेल बजाकर। कलाताई को अपना यह प्रण याद आया। अपने उस प्रण को याद करते हुए वह करवटें बदल ही रही थीं कि पडोसी रश्मि की दिल दहला देने वाली चीख उनके कानों में फिर पडी। कलाताई झटके से उठीं। अपनी साडी ठीक करते हुए घर के मेनगेट की ओर बढ गईं। कुछ ही देर में कलाताई रश्मि के घर की डोरबेल बजा रही थीं। डोरबेल बजते ही अंदर का हंगामा शांत हो गया,लेकिन वह हंगामा अब शायद घर के बाहर होना तय था।
रश्मि के पति संुदर ने बडे तैश में दरवाजा खोला। पूछा क्या चाहिए। कलाताई बोलीं शांति चाहिए। झगडा और मारपीट यहां नहीं चलेगी। संुदर हतप्रभ था। बोला देखिए ये मेरे घर का मामला है। और आप तो मेरे मोहल्ले की भी नहीं हैं। हमारे मामले में न ही बोलें तो अच्छा है। कलाताई ने कहा अब यह तुम्हारे घर का मामला नहीं है। पूरे मोहल्ले की नींद उडा रखी है। उसे जानवरों की तरह पीट रहे हो। यह जुर्म है। मैं अभी पुलिस को बुलाती हंू। पत्नी पर हिंसा के अपराध में जेल की हवा खाओगे तब आएगी तुम्हारी अकल ठिकाने। इतने में रश्मि दौडकर कलाताई के गले लग गई। उसके चेहरे और बाहों पर कुछ पुराने नील और कुछ नई चोटों के निशान थे। कलाताई ने रश्मि से पूछा क्यों मार रहा था यह तुम्हें। रश्मि धीरे से बोली ’दाल में नमक’ ज्यादा हो गया था। कलाताई ने संुदर की तरफ देखा तो अब तक उसकी तनी हुई गरदन थोडी झुक चुकी थी। अब तक कलाताई की बहन रज्जो, बहनोई सुशील और मोहल्ले के अन्य लोग भी रश्मि के घर के दरवाजे पर इकट्ठे हो चुके थे। कलाताई ने बडे विश्वास के साथ कहा चल रश्मि मैं तेरे जख्मों पर दवा लगा देती हंू। मैं अभी दिल्ली वापस नहीं जा रही। तेरा पति अगर फिर ऐसी हरकत करेगा तो मैं फिर तेरे घर की डोरबेल बजाऊंगी। मैं न भी रही तो तेरे मोहल्ले वाले तेरा साथ देंगे। यह कहते हुए कलाताई ने मोहल्ले के गणमान्य व्यक्तियों की तरपफ देखा तो जैसे आंखों ही आंखों में सबने कलाताई को रश्मि के लिए वादा दे दिया।

नोटः जागरुकता के अभाव में आज भी हजारों महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं। इससे महिलाओं का शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हालांकि देश में ‘घरेलू हिंसा से संरक्षरण कानून-2005‘ लागू है फिर भी घरेलू हिंसा से प्रताडि़त कई महिलाएं आत्महत्या तक कर लेती हैं। कहानी के माध्यम से समस्या बताने और इसका समाधान सुझाने के पीछे ब्लाॅगर यानी कि मेरा एकमात्र उद्देश्य है भारतीय समाज में जागरुकता लाना। मेरी किसी भी कहानी व लेख को अन्यथा न लिया जाए। मेरी यह कहानी हिन्दी मासिक पत्रिका ‘दस्तक टाइम्स‘ में प्रकाशित हो चुकी है। धन्यवाद!


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